'गरुड़-पुराण में यात्रा-पश्चात् संशय व निकष'

चरैवेति चरैवेति का दर्शन छकती वैदिक सनातन परम्परा में ऋषि प्रज्ञाएँ प्राणवायु को उत्क्रमित करते किसी व्यक्ति, समूह अथवा चेतना(गति) के विराम को ही देहान्त अथवा मृत्यु संज्ञक मानती हैं। जन्म, जरा, व मृत्यु में क्रमशः प्रकट, परिवर्तन व नाशवन्त होने का यह बोध काल-कालान्तर से हमारे समक्ष रहा है। समय-समय पर उद्भट पुराण परम्परा ऐसे अनेक आदर्शों को शृंखलाबद्ध करती रही है, जिन्हें कालबाह्य तो नहीं ही कहा जा सकता है।

'तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा'...की परम्परा में सनातन को आत्मसात करते जन की आस्था स्तुत्य है। ऐसे कितने उदाहरण भरे पड़े हैं जहाँ ज्ञानप्राप्ति व सम्बोधि को एक सहज सरल घटना का परिणाम माना गया है। 'मा निषाद' इसका अप्रतिम साक्ष्य है।

आठ आठ मात्राओं के चार चरण लिए हुए यह श्लोक आदि कवि के हृदय में कैसे प्रस्फुटित होता है? वह रत्नाकर जिसे व्याधकर्म में रत माना गया है, 'रामायण' जैसी अद्भुत रचना कैसे कर लेता है? या वे वेदपारग ऋषिकुल कहाँ से आए जिन्होंने 'कृण्वन्तो विश्वमार्यम' जैसी कल्पनाएँ की? काल प्रवाह में अठखेलियाँ करतीं, किसी अनन्त तरङ्ग राशि की भाँति नासदीय सूक्त के उस विराट पुरुष को सर्वप्रथम किसने जाना? उक्त बातें आज गौण हैं क्योंकि ऐसे अनेक उदाहरण भरे पड़े हैं जहाँ ज्ञानप्राप्ति व सम्बोधि को एक सहज सरल घटना का परिणाम माना गया है। यहाँ यह प्रश्न उठ सकता है कि ज्ञान क्या है और इसकी लब्धि क्या है?

ज्ञान सर्वदा अपने सरलतम रूप में हमारे समक्ष होता है। निज आचरण को हम तनिक ध्यान से देखें तो! कठिनतम की लब्धि एक अन्य अनुभव है। नित्य-प्रति की जीवन शैली में दर्पण की भूमिका ही ज्ञान है। स्वयँ से मिलें, सनातन की अथाह जलराशि में डूबें। डूब कर उतराएँ, तट पर कुछ क्षण बैठें। उस एक क्षण में जो आता है वही ऋत है। उसे अनुभव करें। उसे डिगाने को अथाह बल चाहिए। वह सत्य है सनातन है।

चीनी विषाणु काल में अनेक पुरोधा दिवङ्गत हुए। मघा के संस्थापक स्वर्गीय गिरिजेश राव जी को तपते हम सबने देखा है। दक्षिण ने सुधर्मा की यात्रा को। ऐसे अनेक आदर्श-पुरुष, ऋषि तुल्य मेधाओं ने इस विषद काल में प्रयाण किया। एक ऐसी चिन्ता में जिसका भान हमें भी होना ही चाहिए। गङ्गा-कर्मनाशा की आत्महन्ता प्रवृत्ति से अपनी समस्त सीमाओं के होते हुए भी प्राणपण से समर्पित अघोषित युद्ध में रत इन मेधाओं की लब्धि क्या रही यह तो समय के गर्भ में है। किन्तु सभ्यताओं के इस संघर्ष में संविधान जनित दूषण के फलस्वरूप शिक्षा, शिल्प, विज्ञान आदि में प्रविष्ट होती दुर्गन्ध के पुनर्संस्कार की आवश्यकता है। सनातन परम्परा को नवोन्मेष तो करने ही होंगे।

मघा, सनातन युवा, सनातन विकी, भारती सम्वत् जैसे प्रकल्पों का आधार क्या है? वही अथाह जनमानस तो जिसे विश् कहते ही मानों सम्पूर्ण विश्व साकार हो उठता है। सनातन परम्परा में आदर्शों का विशाल और अनन्यतम कल्पवृक्ष खड़ा है अपनी पूरी गरिमा में....मूल, लता, पात, शाखाओं से परिपूर्ण! उस वृक्ष की अनन्त शाखाओं में अनन्त सम्भावनाएँ निहित हैं। यह किसी मठ, मठाधीश, नेता, अभिनेता की भाँति स्वयँ की रुचि/अभिरुचि का प्रश्न नहीं! न ही किसी योगी-मोदी के सत्ता परिवर्तन पर दृष्टि गड़ाए भारत-द्रोही उदरपूर्ति में रत कबन्धों की!

जाति, कुल, परम्परा, वर्ण से इतर मूल का सिंचन ही ध्येय हो तो पुरखे सहायक होते हैं। कुल, परम्परा, समाज से हमें कुछ तो आगत हुआ है। निर्गत क्या करें? यह बोध ही सीखने की वस्तु है। पुरखों से अहो, अहा से इतर भी तो कुछ मिला है...उसका क्या? हम अपनी सन्ततियों को क्या देकर जाएँ, ऋषि प्रज्ञाओं का वरेण्य क्या केवल यही नियति है? मतान्तरण, एक पुस्तकीय स्व, जनसंख्या जिहाद, दूषित राजनीति स्तर, नष्टप्राय मनुष्यता....क्या युगों से काल कपाल पर अमिट रेख सा भारत यही है?

युगों युगों से यह भारत अभिशप्त रहा है! कभी देव-दानव युद्ध सा प्रारब्ध है तो कहीं इसाई-कसाई युति जैसा वर्तमान। दूषित शिक्षा ने मस्तिष्क को इस भाँति शिथिल कर दिया है कि भावी भारत की सन्ततियाँ सनातन को अश्पृश्य समझती हैं। वे केवल पिज्जा, बर्गर सन्तति हैं जिनका भावी भविष्य व आखेट नित्य समाचार पत्र अथवा सूटकेस में आता ही रहता है।

ऐसे में जबकि कुछ मस्तिष्क किंकर्तव्यविमूढ़ की स्थिति में है, अब आगे क्या? विकल्पहीनता की स्थिति में इस समय राजनीतिक दलों से मार्गदर्शन की अपेक्षा भी व्यर्थ है। आवश्यकता १०० की है व वर्तमान १० देने में भी सक्षम नहीं। राजदण्ड कुन्द हुआ पड़ा हो, आशावादी जन भविष्य की सोचते असमय काल कवलित हुए हों, जनसामान्य को मार्ग न सूझता हो... सनातन चिन्तन, सनातन दर्शन बारम्बार प्रासङ्गिक हो उठता है। 'मुझे अपने खण्डहरों पर मुँह तोप लजाना नहीं आता। मैं शताब्दियों में बहता भारत हूँ, मैं सनातन कालयात्री हूँ।'

अतीत की स्मृतियाँ किसे व्यथित नहीं करतीं? कौन है जो नेत्र मूँदे भावी से अनभिज्ञ निज दायित्वों से भागता फिरता है? वह कुछ भी हो, कालयात्री तो नहीं हो सकता। आदर्शों के इस विशाल मेरु ने आपको भी एक दायित्व सौंपा है। मेरी गति तो कहीं नहीं से उबरें! उन वाक्यों, कथनों का स्मरण करें जिससे कालयात्री ने क्षण-प्रतिक्षण आपको अभिसिंचित किया था। देवायतनों से उठते स्वर व बलाघात को गुनें। साथ ही उस अदम्य साहस को प्रणाम करें जिसने नितान्त अन्धकूप में भी 'धूप' का स्पर्श पाया।

केवल यही युगनद्ध वैदिक परम्परा है। यही सनातन है और यही है वह कालयात्री जिसे हम, आप व जाने कितने ऋषि प्रज्ञा कहते व गुनते रहे। ऋग्वैदिक स्तुतियों में ऋषियों ने जिस ऋत से आश्रय पाया हो वह कोई दुर्लभ वस्तु तो नहीं। वह अनन्त व सनातन आस्था ही है जिसने समयानुसार गायत्री को आत्मसात कर विश्वामित्र रचे! दधीचि अस्थियों को एकत्रित करें, एकराट् का आह्वान करें। धर्म और कर्म एक दूसरे से बँधे हुए हैं। एक से विलग दूसरे का अस्तित्व नहीं। संस्कृत व अन्य भाषाएँ सीखें।अपने शास्त्र पढ़ें, औरों के भी। निष्पत्तियों पर चर्चा करें। वर्तमान में उसका प्रयोग सुनिश्चित करें। कालयात्री की सनातन परम्परा तो यही कहेगी नऽ। ऋग्वैदिक स्तुतियों में ऋषियों ने क्या देखा है... देखें तो तनिक!

शं न॑ इन्द्रा॒ग्नी भ॑वता॒मवो॑भिः॒ शं न॒ इन्द्रा॒वरु॑णा रा॒तह॑व्या। शमिन्द्रा॒सोमा॑ सुवि॒ताय॒ शं योः शं न॒ इन्द्रा॑पू॒षणा॒ वाज॑सातौ ॥१॥

शं नो॒ भगः॒ शमु॑ नः॒ शंसो॑ अस्तु॒ शं नः॒ पुरं॑धिः॒ शमु॑ सन्तु॒ रायः॑। शं नः॑ स॒त्यस्य॑ सु॒यम॑स्य॒ शंसः॒ शं नो॑ अर्य॒मा पु॑रुजा॒तो अ॑स्तु ॥२॥

शं नो॑ धा॒ता शमु॑ ध॒र्ता नो॑ अस्तु॒ शं न॑ उरू॒ची भ॑वतु स्व॒धाभिः॑। शं रोद॑सी बृह॒ती शं नो॒ अद्रिः॒ शं नो॑ दे॒वानां॑ सु॒हवा॑नि सन्तु ॥३॥

शं नो॑ अ॒ग्निर्ज्योति॑रनीको अस्तु॒ शं नो॑ मि॒त्रावरु॑णाव॒श्विना॒ शम्। शं नः॑ सु॒कृतां॑ सुकृ॒तानि॑ सन्तु॒ शं न॑ इषि॒रो अ॒भि वा॑तु॒ वातः॑ ॥४॥

शं नो॒ द्यावा॑पृथि॒वी पू॒र्वहू॑तौ॒ शम॒न्तरि॑क्षं दृ॒शये॑ नो अस्तु। शं न॒ ओष॑धीर्व॒निनो॑ भवन्तु॒ शं नो॒ रज॑स॒स्पति॑रस्तु जि॒ष्णुः ॥५॥

शं न॒ इन्द्रो॒ वसु॑भिर्दे॒वो अ॑स्तु॒ शमा॑दि॒त्येभि॒र्वरु॑णः सु॒शंसः॑। शं नो॑ रु॒द्रो रु॒द्रेभि॒र्जला॑षः॒ शं न॒स्त्वष्टा॒ ग्नाभि॑रि॒ह शृ॑णोतु ॥६॥

शं नः॒ सोमो॑ भवतु॒ ब्रह्म॒ शं नः॒ शं नो॒ ग्रावा॑णः॒ शमु॑ सन्तु य॒ज्ञाः। शं नः॒ स्वरू॑णां मि॒तयो॑ भवन्तु॒ शं नः॑ प्र॒स्वः१॒॑ शम्व॑स्तु॒ वेदिः॑ ॥७॥

शं नः॒ सूर्य॑ उरु॒चक्षा॒ उदे॑तु॒ शं न॒श्चत॑स्रः प्र॒दिशो॑ भवन्तु। शं नः॒ पर्व॑ता ध्रुवयो॑ भवन्तु॒ शं नः॒ सिन्ध॑वः॒ शमु॑ स॒न्त्वापः॑ ॥८॥

शं नो॒ अदि॑तिर्भवतु व्र॒तेभिः॒ शं नो॑ भवन्तु म॒रुतः॑ स्व॒र्काः। शं नो॒ विष्णुः॒ शमु॑ पू॒षा नो॑ अस्तु॒ शं नो॑ भ॒वित्रं॒ शम्व॑स्तु वा॒युः ॥९॥

शं नो॑ दे॒वः स॑वि॒ता त्राय॑माणः॒ शं नो॑ भवन्तू॒षसो॑ विभा॒तीः। शं नः॑ प॒र्जन्यो॑ भवतु प्र॒जाभ्यः॒ शं नः॒ क्षेत्र॑स्य॒ पति॑रस्तु शं॒भुः ॥१०॥

शं नो॑ दे॒वा वि॒श्वेदे॑वा भवन्तु॒ शं सर॑स्वती स॒ह धी॒भिर॑स्तु। शम॑भि॒षाचः॒ शमु॑ राति॒षाचः॒ शं नो॑ दि॒व्याः पार्थि॑वाः॒ शं नो॒ अप्याः॑ ॥११॥

शं नः॑ स॒त्यस्य॒ पत॑यो भवन्तु॒ शं नो॒ अर्व॑न्तः॒ शमु॑ सन्तु॒ गावः॑। शं न॑ ऋ॒भवः॑ सु॒कृतः॑ सु॒हस्ताः॒ शं नो॑ भवन्तु पि॒तरो॒ हवे॑षु ॥१२॥

शं नो॑ अ॒ज एक॑पाद्दे॒वो अ॑स्तु॒ शं नोऽहि॑र्बु॒ध्न्यः१॒॑ शं स॑मु॒द्रः। शं नो॑ अ॒पां नपा॑त्पे॒रुर॑स्तु॒ शं नः॒ पृश्नि॑र्भवतु दे॒वगो॑पा ॥१३॥

आ॒दि॒त्या रु॒द्रा वस॑वो जुषन्ते॒दं ब्रह्म॑ क्रि॒यमा॑णं॒ नवी॑यः। शृ॒ण्वन्तु॑ नो दि॒व्याः पार्थि॑वासो॒ गोजा॑ता उ॒त ये य॒ज्ञिया॑सः ॥१४॥

ये दे॒वानां॑ य॒ज्ञिया॑ य॒ज्ञिया॑नां॒ मनो॒र्यज॑त्रा अ॒मृता॑ ऋत॒ज्ञाः। ते नो॑ रासन्तामुरुगा॒यम॒द्य यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥१५॥

प्रस्तुत में शिक्षकों हेतु भी स्पष्ट कार्य आदेश है व जनसामान्य हेतु भी। ऋषि द्रष्टा यूँ ही तो नहीं हुए! काल प्रवाह में कालगति के वलय, तरङ्ग व घूर्णन को उद्भाषित करते उन पुरुषों, पुरखों को आत्मसात करने वाले अत्यल्प रहे हैं। वे इन्द्रादि देवगण जिन्होंने अपनी समस्त शुभता मनुष्य मात्र को प्रदान की वे हमारी ऋषि प्रज्ञाओं को अपनी कृपा से अभिसिंचित करें, ऐसी कामना है।

करने से होता है के ध्येय वाक्य सह सनातन कालयात्री को श्रद्धासुमन व नमन। वे अप्रतिरथ ऐन्द्र हमारा मार्ग प्रशस्त करें..इति!

ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति:!



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